Whenever I read this poem, I am left speechless. Never saw such an intense and profound expression in Hindi poetry. *Bows* to Ramdhari Singh Dinkar.
कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम घूम
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखो आगे क्या होता है ......
मैत्री की रह दिखाने को
सबको सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान् हस्तिनापुर आये
पांडव का संदेशा लाये ...
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रक्खो अपनी धरती तमाम
हम वही ख़ुशी से खायेंगे
परिजन पर असी न उठाएंगे
दुर्योधन वह भी दे न सका
आशीष समाज का ले न सका
उलटे हरी को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
हरी ने भीषण हुंकार किया
अपना स्वरुप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान् कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हाँ हाँ ! दुर्योधन बाँध मुझे
यह देख गगन मुझमें लय है
यह देख पवन मुझमें लय है
मझमें विलीन झंकार सकल
मुझमें विलीन संसार सकल
अमृत्तव फूलता है मुझमें
संघार झूलता है मुझमें
उदयचल मेरे दीप्त भाल
भूमंडल वक्ष स्थल विशाल
भुज परिधि बाँध को घेरे हैं
मैनाक मेरु पग मेरे हैं
दिखते जो ग्रह नक्षत्र -निकर
सब हैं मेरे मुख के अन्दर .....
शक है तो दृश्य अकाण्ड देख
मुझमें सारा भ्रह्मांड देख
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर
शतकोटी सूर्य शत कोटि चन्द्र
शतकोटी कोटि सरित सर सिन्धु मंद्र
शतकोटी विष्णु ब्रह्मा महेश
शत कोटि विष्णु जलप ति धनेश
शत कोटि रूद्र शत कोटि काल
शतकोटी दण्डधर लोकपाल
जंजीर बाधा कर साध इन्हें
हाँ हाँ ! दुर्योधन बाँध इन्हें !
भूलोक अतल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन
यह देख महाभारत का रण ..
मृतकों से पटी हुयी भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है ....
अम्बर में कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं .....
जिह्वा के कढती ज्वाल सघन
साँसों में पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर
हँसने लगती सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन
चा जाता चारों ओर मरण....
बाँधने मुझे तो आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है ?
यदि मुझे बांधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध न सकता है
वह मुझे बाँध कब सकता है ?
हित वचन नहीं तुने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले मैं भी अब जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा !
जीवन जय या कि मरण होगा !
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर
फण शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुह खोलेगा
दुर्योधन ! रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा ...
भाई पर भाई टूटेंगे
विष बाण बूंद से छूटेंगे
वायस श्रृगाल सुख लूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा
हिंसा का पर दाई होगा ...
थी सभा सन्न , सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनों करते थे जय-जय ....!!!!
-- रामधारी सिंह 'दिनकर'
कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम घूम
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखो आगे क्या होता है ......
मैत्री की रह दिखाने को
सबको सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान् हस्तिनापुर आये
पांडव का संदेशा लाये ...
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रक्खो अपनी धरती तमाम
हम वही ख़ुशी से खायेंगे
परिजन पर असी न उठाएंगे
दुर्योधन वह भी दे न सका
आशीष समाज का ले न सका
उलटे हरी को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
हरी ने भीषण हुंकार किया
अपना स्वरुप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान् कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हाँ हाँ ! दुर्योधन बाँध मुझे
यह देख गगन मुझमें लय है
यह देख पवन मुझमें लय है
मझमें विलीन झंकार सकल
मुझमें विलीन संसार सकल
अमृत्तव फूलता है मुझमें
संघार झूलता है मुझमें
उदयचल मेरे दीप्त भाल
भूमंडल वक्ष स्थल विशाल
भुज परिधि बाँध को घेरे हैं
मैनाक मेरु पग मेरे हैं
दिखते जो ग्रह नक्षत्र -निकर
सब हैं मेरे मुख के अन्दर .....
शक है तो दृश्य अकाण्ड देख
मुझमें सारा भ्रह्मांड देख
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर
शतकोटी सूर्य शत कोटि चन्द्र
शतकोटी कोटि सरित सर सिन्धु मंद्र
शतकोटी विष्णु ब्रह्मा महेश
शत कोटि विष्णु जलप ति धनेश
शत कोटि रूद्र शत कोटि काल
शतकोटी दण्डधर लोकपाल
जंजीर बाधा कर साध इन्हें
हाँ हाँ ! दुर्योधन बाँध इन्हें !
भूलोक अतल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन
यह देख महाभारत का रण ..
मृतकों से पटी हुयी भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है ....
अम्बर में कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं .....
जिह्वा के कढती ज्वाल सघन
साँसों में पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर
हँसने लगती सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन
चा जाता चारों ओर मरण....
बाँधने मुझे तो आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है ?
यदि मुझे बांधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध न सकता है
वह मुझे बाँध कब सकता है ?
हित वचन नहीं तुने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले मैं भी अब जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा !
जीवन जय या कि मरण होगा !
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर
फण शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुह खोलेगा
दुर्योधन ! रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा ...
भाई पर भाई टूटेंगे
विष बाण बूंद से छूटेंगे
वायस श्रृगाल सुख लूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा
हिंसा का पर दाई होगा ...
थी सभा सन्न , सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनों करते थे जय-जय ....!!!!
-- रामधारी सिंह 'दिनकर'