अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं…।
स्कूल से लौटते वक़्त
मन में बस एक ही द्वंध होता था
कि आज किसकी चिट्ठी आई होगी?
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
आज भी मेरे
लोहे के छोटे बक्से में
भरे पड़े हैं सब.……
कुछ नाम लिखने से रह भी गए होंगे,
बढ़ती उम्र की धुंधलाती यादें। …
नीले अन्तर्देशियों और पीले पोस्टकार्डों
की शाही ज़रूर हलकी पड़ गयी है
पर उनमें लिखा एक-एक शब्द
आज भी आँखों में हीरे सा चमकता है
कुछ सफ़ेद - पीले लिफ़ाफ़े भी हैं
अखबार सी चिट्ठियों से भरे.…
मैं जब भी अपने उस
चिट्ठियों के बक्से को
खोलकर बैठ जाती हूँ, तो
पापा अक्सर टोकते हैं,
"लाली! क्या ढूंढती रहती है,
इस बक्से में ? ....... "
जवाब होता तो है , पर
शब्द नहीं .......
ज़िन्दगी कितने आगे बढ़ गयी है
और मन रह गया है ,
वहीँ , पीछे कहीं … ....
भागता दौड़ता वक़्त,
मौका मिलते ही जा पकड़ता है,
गुज़री यादों को,
सहजता से उमड़े,
मनोभावों को ....
हृदय द्रवित हो उठता है
और व्यथित भी …
एक ज़माना हो गया है
खाकी वर्दी में, साइकिल पे सवार
हैंडल पर थैला लटकाये उस
पसीने से लथ-पथ, थके माँदे
पर, मुस्कराते डाकिये को देखे …
फेस-बुक के डिब्बे में बंद
स्मार्ट फ़ोन हाथ में लिए
हम आधुनिकता में खो गये हैं
खुद से बहुत दूर हो गये हैं
अब किसी को भी शायद
उस डाकिये की याद नहीं आती
स्कूल से लौटते वक़्त
मन में बस एक ही द्वंध होता था
कि आज किसकी चिट्ठी आई होगी?
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
आज भी मेरे
लोहे के छोटे बक्से में
भरे पड़े हैं सब.……
कुछ नाम लिखने से रह भी गए होंगे,
बढ़ती उम्र की धुंधलाती यादें। …
नीले अन्तर्देशियों और पीले पोस्टकार्डों
की शाही ज़रूर हलकी पड़ गयी है
पर उनमें लिखा एक-एक शब्द
आज भी आँखों में हीरे सा चमकता है
कुछ सफ़ेद - पीले लिफ़ाफ़े भी हैं
अखबार सी चिट्ठियों से भरे.…
मैं जब भी अपने उस
चिट्ठियों के बक्से को
खोलकर बैठ जाती हूँ, तो
पापा अक्सर टोकते हैं,
"लाली! क्या ढूंढती रहती है,
इस बक्से में ? ....... "
जवाब होता तो है , पर
शब्द नहीं .......
ज़िन्दगी कितने आगे बढ़ गयी है
और मन रह गया है ,
वहीँ , पीछे कहीं … ....
भागता दौड़ता वक़्त,
मौका मिलते ही जा पकड़ता है,
गुज़री यादों को,
सहजता से उमड़े,
मनोभावों को ....
हृदय द्रवित हो उठता है
और व्यथित भी …
एक ज़माना हो गया है
खाकी वर्दी में, साइकिल पे सवार
हैंडल पर थैला लटकाये उस
पसीने से लथ-पथ, थके माँदे
पर, मुस्कराते डाकिये को देखे …
फेस-बुक के डिब्बे में बंद
स्मार्ट फ़ोन हाथ में लिए
हम आधुनिकता में खो गये हैं
खुद से बहुत दूर हो गये हैं
अब किसी को भी शायद
उस डाकिये की याद नहीं आती
मुझे आती है …
डाकिये की भी और
डाकिये की भी और
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
और उन सभी की
जिनको मैंने अपने छोटे से लोहे के
चिट्ठियों के बक्से में सहेज रखा है....
यादें उमड़ आती हैं
गला रुँध जाता है,
आँखें भीग जातीं हैं
पर … ....
अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं …… !!
अर्चना ~ 28-06-2014