दिन के करीब 3 बजे होंगे। एक दूसरे से टकराते, हाथों और कन्धों पर सामन लादे, साथ में बच्चों की नन्ही उँगलियों को थामे लोग इधर से उधर दौड़ रहे थे। सबका गंतव्य अलग था पर धयेय एक ही था कि कहीं ट्रेन न छूट जाये।
शिथिल और बेजान से मेरे कदम भी भीड़ के धक्के से अपने आप ही आगे बढ़े जा रहे थे। उन की तरह मुझे भी ट्रेन पकड़ने की जल्दी तो थी पर मन नहीं। जैसे जो था वो सब मेरे हर एक बढ़ते कदम के साथ पीछे छूटता जा रहा था। अपने आपको नियंत्रित व संयमित करने की पूरी कोशिश कर रही थी पर हर प्रयास निरर्थक था।
फटा टूटा बेजान मन आँखों से बह रहा था और मैं कन्धों पर बैग को टाँगे, दोनों हाथों से आँखों को इस तरह पोंछने का अभिनय करते हुए आगे बढ़ रही थी कि जैसे इनमें कोई तिनका गिर गया हो। इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ कि इस अनजान भीड़ के सैलाब में दो नन्ही आँखें मेरी भीगी आँखों को भी देख रही हैं।
काले बुरखे में सर से पाँव तक लिपटी वो तेरह- चौदह साल की मासूम लड़की कब मुझसे टकरा गयी मुझे पता भी न चला। अपने दोनों हाथों से मेरे चेहरे को ऊपर उठाते हुए बोली "क्या हुआ दीदी ......" एक क्षण के लिए मैं स्तब्ब्ध हो गयी कि जैसे किसी ने मेरी चोरी पकड़ ली हो। बचपन में मम्मी से परियों की कहानियां तो सुनी थीं पर यूँ अचानक सामने आ जायेगी, नहीं पता था। समझ ही नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ। "कुछ भी तो नहीं …. " कह कर मैं तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गयी।
आत्मीयता भरे शब्दों को सुन कर शान्ति से बहते आंसू अब हिचकियों में तब्दील होने लगे थे, पर उस नन्ही परी को मैं पीछे छोड़ आई थी, हालाँकि कहीं ना कहीं उसे यूँ छोड़ कर आने का पछतावा भी था। कदम रुके तो सीधे अपने कोच के सामने। दिन बीत गए, जिंदगी भी धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ने लगी पर आज भी अक्सर जब मेरी आँखें नम होती हैं तो ज़हन में काले लिबास में लिपटी वो लड़की चुपके से चली आती है और कहती है "क्या हुआ दीदी ……" और मैं भीगी पलकों से शून्य में खो जाती हूँ।
अर्चना
26-02-2013
...well written....touching narrative...
ReplyDeleteThanks Abid Sir. Saw your comment today. You always inspire me....
DeleteThanks Tanmay :)
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