बचपन से ही किताबों ने मुझे हमेशा आकर्षित किया है। मम्मी का भी बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है किताबों के प्रति मेरे विशेष चाव में। जब से होश संभाला, खुद को चम्पक, नंदन, चंदामामा, पराग, सुमन-सौरभ, मधु-मुस्कान, और कादिम्बिनी इत्यादि से घिरा पाया। वो बात और है की उस वक्त मन पाठ्यक्रम की किताबों में कम और नंदन, चंदाममामा में जयादा लगता था।
कभी परियों की दुनियाँ में खुद को खडा पाती, तो कभी विक्रम बेताल के पीछे पीछे भागती। तेनालीराम के किस्से और चाचा चौधरी की मूछें अभी भी चेहरे पर अनोखी मुस्कान ला देते हैं। थोड़ा और बड़ी हुयी तो नंदन सुमन सौरभ से निकल कर, कादिम्बिनी भी पढने लगी, मम्मी के लिए आती थी वैसे पर मैं पढ़े बिना रह सकती थी भला ? कक्षा 6 से ही कादम्बिनी की कहानियों के सिरे खोजती रहती थी, और कविताओं की नीव और आधार , कुछ मिले और कुछ आज भी ढूंड रही हूँ।
बारहवीं कक्षा तक पढाई का माध्यम हिंदी ही रहा है, तो उस वक्त अंग्रेजी की किताबों की तरफ ना तो ध्यान ही गया और न ज़रुरत ही महसूस हुयी कभी। मम्मी का विषय भी हिंदी ही रहा है तो उनके माध्यम से भी हिंदी साहित्य की किताबों की ही तरफ ध्यान ज्यादा जाता था। मैं कक्षा 5 में रही होंगी जब मम्मी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हिंदी में M.A. कर रहीं थीं, उनकी कबीर ग्रिन्थावाली मैंने तभी पढ़ डाली थी। कुछ दोहे तो अभी भी याद हैं।
स्कूल से आकर हमेशा यही उत्सुकता होती की क्या पता आज नयी नंदन या सुमन सौरभ आई हो, या कम से कम कादिम्बिनी तो ज़रूर। और अगर दिन बारिश का है तो हल्का पंखा चलकर, हलकी सी एक चादर भी ओढ़ कर नंदन का नया विशेषांक पढने में जो आनंद की अनुभूति होती थी, उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाउंगी कभी। Ayn Rand जोकि अब मुझे सबसे अधिक पसंद है वो भी उस कमी को पूरा नहीं कर सकती। सम्पूर्ण आनंद।
पड़ौस में मेघा रहती थी, उसके पास नंदन सुमन-सौरभ तो नहीं पर किताबों का एक अगलग ही संसार था। रूस की लोक-कथाएँ, विज्ञान की परम्पराएं और भी ना जाने क्या क्या , हमारी पहुँच से एक दम बाहर की किताबें। रंग-बिरंगी, मोटी-पतली, छोटी-बड़ी किताबें। रूस की उन लोक कथाओं को पढ़कर मन एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता था। रहन सहन, खाना पीना यहाँ तक ज़िन्दगी जीने का तरीका भी कितना अलग था हम लोगों से।मन तो जैसे, कैसे नए नए ताने बाने बुनने लगता था। कुछ पल के लिए तो लगता मैं रूस की गलियों में घूम रही हूँ। मेघा से दोस्ती, मतलब किताबों का खजाना।
मामा जी का घर भी पंतनगर में ही था। अक्सर उनके घर रहने चली जाती थी और रहने जाने का एक बहुत बड़ा मकसद होता था "किताबें" :) कोमिक्स और किताबों की जो वैराईटी उनके घर मिलती थी वो हमारी कॉलोनी किसी बच्चे के घर नहीं मिल सकती थी। दिमाग पर जोर डालने से भी नाम याद नहीं आ पा रहे उन सिरीज़ के जो उनके घर पढ़ी थीं, पर उन दिनों की यादें आज भी बाँछें खिला देती हैं।
उम्र बढती गयी और उम्र के साथ किताबों के प्रति रूचि बढ़ने के साथ बदली भी। ऐसा नहीं था कि बढती उम्र के साथ नंदन, चन्दामामा या सुमन सुरभि बुरे लगने लगे थे, पर अब सरिता और गृह शोभा पढने में भी मज़ा आने लगा था। हालंकि सरिता और गृहशोभा हाथ में दिख जाए तो डांट पड़ना एक स्वाभिक प्रतिक्रिया थी, पर मैं किसी-न-किसी तरह हल निकाल ही लिया करती थी। उत्सुकता और अभिरूचि उम्र और समय के साथ बढती ही हैं, यह उस समय पता तो नहीं था पर अनुभव ज़रूर किया था।
कॉलेज में कदम रखते ही अंग्रेजी की आवशकता महसूस हुयी और किबाओं के चयन में बदलाव की भी। पंतनगर यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी मतलब, खाली समय व्यतीत करने का मेरा प्रिय स्थान, उसमें से भी सबसे प्रिय जगह , इंग्लिश तथा हिंदी साहित्य और कविता सेक्शन। होस्टल के प्रांगण में शिडनी शेल्डन से भी मुलाकात हो चुकी थी अब तक। होस्टल की लड़कियों से मिलकर पता चला कि किताबों की दुनिया का एक कितना बड़ा हिस्सा अभी छुआ भी नहीं था और किताबों की बातें करना शुरू करो तो कभी ख़तम ही ना हों। ऐसा महसूस हुआ कि जैसे .....
किताबों के समुन्दर को दूर से देखा भर है ,
अभी तो बहुत ही लम्बा सफ़र है।
एक बार ज़िन्दगी ख़तम हो जाए
पर किताबों की दुनिया तो अमर है। ( अर्चना )
यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में ही बैठी थी की एक दिन नज़र पड़ी सफ़दर हाशमी साहब की इस कविता पर, जो आज भी मुझे मुंह ज़बानी याद है। पढ़ा तो ऐसा लगा कि जैसे किसी ने मेरे मन के भावों को उन सफ़ेद पन्नों पर अंकित कर दिया हो। आप भी पढ़िए, शायद ऐसा ही कुछ अनुभव आपका भी हो :-
किताबें कुछ कहना चाहती हैं!
किताबें कुछ कहना चाहती हैं!
किताबें
करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की।
आज की, कल की
एक एक, पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़ियाँ चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं।
किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान का भण्डार है।
क्या तुम इस संसार में
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
~ सफ़दर हाशमी ~
bahut sunder likha hai archna - mujhe khud apne bachpan ke din yaad dila diye ,kuch 5 saal pehley tak - parag ka 1 issue 1 april 1957 wala samhal ke rakha tha - jab uskee editer thien kamini kaushal - makan kee adla badli mai kahin gum ho gaya - chandamama - dharmyug to ata tha - baqi kiraye pe 1 aana pe lakey padtey they .mujhe khud shouq hai padne ka - hamari mataji bhee jo thein to bas 8th pass per padtee sab sahitya thein .jaan kar hairani ho gai ke i mera mitra rothin choudhery jo twitter pe kabhi 2 aata hai - wo to itan vidvan hai ke uskee personal lib mai kam sae kam 10000 bks hongee @wrathin handle say,safdar hasmi ka yaad dilaya - jiskee nirmam hatya koi mukesh sharma congresi tha ke gundon ne dilli - ghaziabad border pay jahan tak yaad aata hai 1 jan 1990 ko hui thee - tab hum 1 meeting mai dilli gaye the -bada junoo wala yuva tha ,aaj kal leftist kee baat karo to jaise blasphemy kar dee ho - itna intolerance hai.khair baat sahitya kee hai - haan safdar hashmi kee 1 kavita mazloomom pe thee - jahan likhee thee wo diary kho gayee - agar miley to zaroor mujhe bhejna mere email hai @subodh1945@gmail.com - kadambini pay yaad aya - rajendra awasti bhee uskay editor hua kartey they.ab to shyad band ho gayi - dharam yug bhee -band - sarita bhee Viswanath jee ke marne ke baad - wo cheez nahi rahi - bahut ache vichar likha - maza aa gaya - hindi mai aur likha karo -
ReplyDelete@SK Thanks Uncle. Maza aaye aapke comments padh kar :) Whenever I hum this poem "Kitabein" I feel like touching the feet of Safdar Hashmi sahab. Thanks a lot for encouragements, please keep motivating me with your blessings :)
DeleteSimple language to write awesome feeling, very true..the more we immerse in the world of books..the more thirsty we become..keep up writing wonderful blogs...
ReplyDelete@Palash Thanks a lot Palash Sir. I will try to pen down more of my feelings from now on. Just never wrote anything so don't have confidence to write :) But will try :)
DeleteBahut sunder. Aisa laga mano mere bachpan ki tasveer aapne paint kar di hai. Lagbhag aisa hi anubhav mera bhi hai. Absolutely nostalgic :)
ReplyDelete@Rashmi Thanks a lot ma'am for your encouraging words :)
Deleteलिखावट और लेखन तो लाजवाब है पर इते दिनों बाद हिंदी पढ़ कर और वो भी इतनी साफ़ और सरल भाव से लिखी हुइ. वाह बचपन की याद आ गयी :)
ReplyDeleteधन्यवाद शोमिक। ये प्रोत्साहन से भरे शब्द दुबारा लिखने को प्रेरित ज़रूर करेंगे। आशा है तुम हमेशा यूँ ही प्रोत्साहित करते रहोगे :)
DeleteTatha astu!!
DeleteBehad umda ! Bachpan ki yaadein tazaa ho gayin aur toh aur woh ek hindi mein likhne ki kala aur padhne ka maza jo ki ek tarah se khatam ho chuka tha woh aapne fir se zinda kar diya !
ReplyDeleteYuvi tumhaara bachpan to abhi abhi hi guzara hai, humse poocho jo umra ke iss daur mein bachpan se kitnaa aage nikal aaye hein. Achcha laga ye jaan kar ki mere shabdon ne kuch to prabhaav chora hai :) Thanks a lot for encouragement :)
Deletesundar abhivyakti. mujhe laga mera hi bachpan dohraya ja raha ho :)
ReplyDeleteThanks Adee. Initially I used to write things within minds, recently few friends motivated that I must write, no matter good or bad, thus started writing here. Though I am very conscious as you all are at high level :) Thanks a lot for motivation :)
Deletebadi saafgoyi aur namaloom tareeke se aap hamein laptop se shutter wale b&w TV ki duniya me le kar chali gayin. laga paani me khud ki parchhayi dekh rahe hon ...halki dhundhlayi aur halki pattayi.
ReplyDeleteye padhkar mujhe to bachpan se zyada wo din yaad aa gaye jab hum fursat me baithkar ghanton yahi sab baatein kiya karte tha aur backdrop me Gulzaar sahab gungunate rehte the.
Waqt sabon ko kheench kar itna aage le aaya hai ki mano kitaabein ...hamare baste me aur sandook me (with name painted)peechhe hi chhot gayi hain.
Felt relaxed ki koi hai jo abhi bhi unki fiqar rakhe hai...god bless u keep writing.
Thanks Alok. Nice to see there are people who still rejuvenate memories and cherish them. Read your blog too, you must write more :)
DeleteBlog reminded me of my own childhood and its memories. Non-course books have always interested me. Refreshing blog and beautifully expressed. Kudos Archana ...... Keep writing....
ReplyDeleteThanks Akhtar, you always motivate me and that shall keep me writing. Thanks a lot for your encouraging words.
Deleteकिताबों के सहारे आपने अपने बचपन का जो रेखा-चित्र खींचा है वह बरबस ही हमें भी अपने-अपने बचपन में विचरण करा लाती है.
ReplyDeleteचंदामामा, से लेकर सौरभ और फिर सरिता तक का सफ़र न सिर्फ बचपन और किशोरावस्था वरन उससे भी आगे की दिनों में ले जाती है.
रूस के बैक-ड्राप में वो पुस्तकें (नाम भूल रहा हूँ)वाह क्या बात थी...
फिर Reader Digest ने भी अपना दीवाना बनाया था.
लेख के अंत में सफ़दर हाश्मी की कविता भी मुझे व्यक्तिगत रूप से छू गयी...
स्कूल के अंतिम वर्षों में हमरे प्राचार्य जी ने ये कविता हमें सुनाया था.
आभार और साधुवाद कि ऐसी रचना से हमें भी अवगत कराया आपने :)
Sir ! आप सच कह रहे हैं, उन दिनों की बात ही कुछ और थी। सच में सफ़दर साहब की ये कविता सिर्फ बच्चों को ही नहीं बड़ो को भी प्रभावित करती है। मनोबल बढाने के लिए आपका धन्यवाद :)
DeleteAap Ne aur is kavita ne to samaye me waapis bhej diya kayi saal, un behetareen yaadon ke samaksh..
ReplyDelete"Wo din" yaad aa gaye.. jo Shuru hua tha Champak, Nandan aue Dhruv/Nagraj ki comics se, kitaabon se pyaar ka ye silsilaa aisa chala hai ki thamta nahin dikhta.. Us waqt un kitaabon ka intezaar karta tha aur haath lagte hi baaki sb kuch taak par rakh ke unhe tatolne lag jaata tha.. aaj bhi waisa hi karta hun jab waqt milta hai ya jab koi kitaab is tarah dimaag par chayi rehti hai ki jab tak use padh na daalun kuch aur soch hi nahin paata.. boht kuch badal gaya hai, tab aur ab me.. par ek cheez hai jo lagataar bani rahi hai mere saath, kahaaniyaan. Kirdaar badal gaye hain, aur Premchand ki jagah shayad Khaled Hosseini ne le li hai, par in kirdaaron se bhi usi kadar lagaav hai jaise tab unse hua karta tha.. Kitne hi raaste aur saal beete hain mere in kitaabon me..
Ye sab aur, aur boht kuch yaad dilaane ke liye aapka boht shukriya. Likhte rahiye, khush rahiye.
Thanks Ojas for encouraging :) I too miss those good old days. I have no idea I could justify the feelings with words or not, but I am sure reading this would have given a reason to stop for 2 minutes and think of all those memorable days of books and magazines of our childhood.
DeleteYou too keep smiling :)
Read your "Kitaaben kuch kehna chaahti hain". A very well written piece. Nostalgic too. Could relate with the darts of peace books give. As a kid I too had my share of English and Hindi literature. Both in and out of school. My appetite was insatiable back then. But with changing times and tech distractions reading good literature has dropped. Your piece made me think of wanting to change that. :)
ReplyDeleteS
Thanks S. I too now a days have craving to read champak, nandan and chanda mama etc... again. I tried too. But that does not give same feel now. From cover to lay out to presentation, everything got changed......I feel so much of precious moments are left behind. Its just recalling them gives joys and pain both. You must get back to book, I am sure you would feel good :)
ReplyDeletereading it fr second time....n as earlier...m smiling again.... thnx :-)
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