आज Children's Home की एक बच्ची को नज़दीक के सरकारी अस्पताल ले कर गयी थी। दिन के करीब 11 बजे होंगे मैं Eye OPD के बाहर बैठे मिन्नी का इंतज़ार कर रही थी, अन्दर उसके कुछ टेस्ट हो रहे थे। तरह तरह के मरीज़, जिनमे से 50% वृद्ध ही होंगे सबके साथ कोई न कोई था सिवाय एक बूढ़ी अम्मा के। एकदम पतली दुबली, जैसे किसी ने कंकाल पर खाल चढ़ा दी हो। OPD में पड़ी बैंचे भरी हुयी थीं पर इतनी भी नहीं की किसी को नीचे बैठना पड़े। ना जाने क्यूँ वो अम्मा नीचे ज़मीन पर एक बैंच का सहारा लिए बैठी हुयी थी। मैं चुप चाप बैठे हुए उन्हें देख रही थी और अम्मा को इस बात का अंदाजा भी न था।
थोड़ी देर में मिन्नी टेस्टिंग रूम से बहार आई और मेरा ध्यान कुछ पलों के लिए उस बूढ़ी अम्मा से हट गया। मिन्नी का एक टेस्ट अभी और होना था, जिसके लिए नर्स ने उसकी आँखों में दवाई डाल के बैठा दिया था। मिन्नी आँखें दवाई डलवा कर आँखें बंद करके बैठ गयी और मेरा ध्यान फिर उसी बूढी अम्मा पर चला गया। नर्स उनको भी आँखों में दवाई डाल रही थी और सहारा दे कर उन्हें ऊपर बैठाने की कोश्शि भी कर रही थी। अम्मा का रंग गोरा था और चहरे की झुर्रियां ये साफ़ बता रही थीं की अपने ज़माने में खूब सुन्दर रही होंगी। सूखी सी काया सूती साडी में लिपटी हुयी थी और ब्लाउज पर कई पैबंद लगे थे। नर्स से आँखों में दवाई डलवाकर अम्मा इत्मीनान से कुर्सी पर कमर टिका कर बैठ गयीं, आँखें बंद थीं और हाथों के बीच दबा था एक छोटा सा कपडे का थेला, जिसमें से एक छोटी सी पानी की बोतल बाहर झाँक रही थी।
लगभग आधे घंटे के बाद मिन्नी और अम्मा दोनों एक एक करके दोबारा टेस्टिंग के लिए अन्दर गए और फिर बाहर आ कर डॉक्टर को रिपोर्ट्स दिखाने की प्रतीक्षा करने लगे। मिन्नी मेरे कंधे पर सर रख कर सो रही थी और मैं ना जाने क्यूँ उस बूढी अम्मा के बारे में सोच रही थी, "कौन है ? अकेली क्यूँ आई हैं? कहाँ रहती हैं?" बहुत कुछ चल रहा था मन में। भीड़ काफी थी, मैंने भी कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं और मिन्नी के सर पर अपना सर टिका दिया। मुश्किल से पाँच मिनट हुए होंगे मुझे आँख बंद किये हुए की किसी ने मुझे धीरे से थप-थपाया, आंख खुली तो देखा कि वो ही दुबली पतली अम्मा मेरे बराबर में बैठी मुझे उठाने कि कोशिश कर रही थी।
अजीब इत्तेफ़ाक था भीड़ से खचाखच भरे उस कमरे में, अम्मा इतनी दूर से उठकर सिर्फ मेरे ही पास आई थीं। उन्हें कुछ पूछना भी था तो अपने बराबर वाले से पूछ लेतीं, इतनी दूर मेरे पास आने की क्या ज़रुरत थी भला? मैं हतप्रद थी कि बिना मेरे कहे अम्मा ने मेरे मन को कैसे पढ़ लिया? कैसे जान लिया उन्होंने कि जबसे वो इस कमरे आयीं हैं , मेरी आँखें भले ही कहीं हों पर मेरा ध्यान उन्ही पर है। अपने झुर्री से भरे हाथों को मेरे हाथों पर रखते हुए बोलीं "बेटा और कितना समय लगेगा ? अब नहीं बैठा जा रहा। " भीड़ सच में बहुत थी, मैंने उनको सांत्वना दी और नर्स से निवेदन किया की कृपया उनको जल्दी दिखवा दें।
अम्मा मेरे ही बराबर में बैठ अपनी बारी प्रतीक्षा करने लगीं। मुझसे रहा नहीं गया, पूछ ही बैठी "अम्मा आप अकेली आई हो ? कोई साथ नहीं आया आपके ?" अम्मा की आँखें लगभग भर आयीं, मुझे लगा मैं यह सवाल पूछकर सच में कोई बहुत बड़ी गलती कर बैठी हूँ। अम्मा थोडा नियंत्रित होते हुए बोलीं "बेटा ड्यूटी पर गया है, और दोनों पोते भी अपनी अपनी कम्पनियों में व्यस्त हैं। बस ज़रा आँख दिखानी थी तो मैं चली आई खुद ही।" मेरा गला भर आया था, और कुछ आगे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुयी।
दो मिनट को अम्मा और मैं दोनों चुप हो गए। अम्मा ने खुद ही चुप्पी को तोड़ा और बताने लगीं, "एक बेटा दिल्ली से बाहर है और जो दिल्ली में रहता है उसको काम से फुर्सत ही कहाँ। माँ के साथ अस्पताल आएगा तो काम और रूपये दोनों का हर्जा होगा। दोनों पोते भी सुबह चले जाते हैं तो फिर रात को ही लौट कर आते हैं। बहु ने चलते वक़्त 10 रूपये दिए थे, समझ नहीं आया इनसे दो केले खरीद लूं कि रिक्शा कर लूं ? बेटे वो तो एक रिक्शावाला पडौस में ही रहता था कि बिना पैसे लिए मुझे यहाँ तक ले आया, तो मैंने दो केले खरीद ही लिए। अब पूरे दिन अस्पताल में ना जाने कितना समय लग जाता, इन दो केलों ने बड़ा सहारा दिया। पर अब वापस जाने के लिए रिक्शे के पैसे फिर नहीं हैं.… "
अम्मा बताये जा रही थी और मैं कुछ दुःख, कुछ गुस्से में सब चुप चाप सुन रही थी। 70 साल की अम्मा कमजोरी से 85 की प्रतीत होती थी। दो दो कमाऊ बेटे, पोते, और बहुओं से भरा पूरा परिवार होने के बावजूद उम्र के इस दौर में क्षीर्ण होती काया का बोझ अम्मा बिलकुल अकेले ढो रहीं थीं। मेरा मन द्रवित था, क्या यही दिन देखने के लिए समाज शादी करने और बच्चे पैदा करने के उल्हाने देता है। कम से कम जिस समाज में हम रहते हैं वहाँ तो शादी बुढ़ापे के सहारे के लिए ही की जाती है, न करो तो 100 दलीलें दे डालतें हैं अकेलेपन से जुड़ी परेशानियों की। ये समाज और इसकी निर्मूल परम्पराएं !
कितनी भ्रांतियाँ हैं हमारे इर्द गिर्द और इनके चक्रव्यूह में घिरे हम। संवेदनशीलता व्यक्ति के स्तर की गुलाम नहीं होती , फिर चाहे वह स्तर सामाजिक हो, आर्थिक हो अथवा वैवाहिक। हाथ बढ़ा कर छूने भर की देर है , खुशियाँ हमारे आस पास ही हैं कहीं। वृद्ध आश्रम में रह रहे वृद्ध जिन्होंने कभी विवाह नहीं किया शायद अस्पताल में मिली इस बूढ़ी अम्मा से ज्यादा खुश हों, उन्हें इस बात की तकलीफ तो न होगी की जिनको पालने पोसने में हाड़-मांस एक कर दिया, ढलती उम्र में वोही बच्चे बेसहारा छोड़ देते हैं।
अम्मा डॉक्टर को अपनी आँख दिखाकर जा रही थी, पहली बार उनको चलते हुए देखा। उनका ढलता बूढ़ा शरीर कमजोरी से झुक गया था। उनके बेजान और शिथिल बढ़ते कदम जीवन की वास्तविकता का अहसास करा रहे थे और घटती संवेदनशीलता का भी.………… ।
अर्चना ~ 14-09-2013
थोड़ी देर में मिन्नी टेस्टिंग रूम से बहार आई और मेरा ध्यान कुछ पलों के लिए उस बूढ़ी अम्मा से हट गया। मिन्नी का एक टेस्ट अभी और होना था, जिसके लिए नर्स ने उसकी आँखों में दवाई डाल के बैठा दिया था। मिन्नी आँखें दवाई डलवा कर आँखें बंद करके बैठ गयी और मेरा ध्यान फिर उसी बूढी अम्मा पर चला गया। नर्स उनको भी आँखों में दवाई डाल रही थी और सहारा दे कर उन्हें ऊपर बैठाने की कोश्शि भी कर रही थी। अम्मा का रंग गोरा था और चहरे की झुर्रियां ये साफ़ बता रही थीं की अपने ज़माने में खूब सुन्दर रही होंगी। सूखी सी काया सूती साडी में लिपटी हुयी थी और ब्लाउज पर कई पैबंद लगे थे। नर्स से आँखों में दवाई डलवाकर अम्मा इत्मीनान से कुर्सी पर कमर टिका कर बैठ गयीं, आँखें बंद थीं और हाथों के बीच दबा था एक छोटा सा कपडे का थेला, जिसमें से एक छोटी सी पानी की बोतल बाहर झाँक रही थी।
लगभग आधे घंटे के बाद मिन्नी और अम्मा दोनों एक एक करके दोबारा टेस्टिंग के लिए अन्दर गए और फिर बाहर आ कर डॉक्टर को रिपोर्ट्स दिखाने की प्रतीक्षा करने लगे। मिन्नी मेरे कंधे पर सर रख कर सो रही थी और मैं ना जाने क्यूँ उस बूढी अम्मा के बारे में सोच रही थी, "कौन है ? अकेली क्यूँ आई हैं? कहाँ रहती हैं?" बहुत कुछ चल रहा था मन में। भीड़ काफी थी, मैंने भी कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं और मिन्नी के सर पर अपना सर टिका दिया। मुश्किल से पाँच मिनट हुए होंगे मुझे आँख बंद किये हुए की किसी ने मुझे धीरे से थप-थपाया, आंख खुली तो देखा कि वो ही दुबली पतली अम्मा मेरे बराबर में बैठी मुझे उठाने कि कोशिश कर रही थी।
अजीब इत्तेफ़ाक था भीड़ से खचाखच भरे उस कमरे में, अम्मा इतनी दूर से उठकर सिर्फ मेरे ही पास आई थीं। उन्हें कुछ पूछना भी था तो अपने बराबर वाले से पूछ लेतीं, इतनी दूर मेरे पास आने की क्या ज़रुरत थी भला? मैं हतप्रद थी कि बिना मेरे कहे अम्मा ने मेरे मन को कैसे पढ़ लिया? कैसे जान लिया उन्होंने कि जबसे वो इस कमरे आयीं हैं , मेरी आँखें भले ही कहीं हों पर मेरा ध्यान उन्ही पर है। अपने झुर्री से भरे हाथों को मेरे हाथों पर रखते हुए बोलीं "बेटा और कितना समय लगेगा ? अब नहीं बैठा जा रहा। " भीड़ सच में बहुत थी, मैंने उनको सांत्वना दी और नर्स से निवेदन किया की कृपया उनको जल्दी दिखवा दें।
अम्मा मेरे ही बराबर में बैठ अपनी बारी प्रतीक्षा करने लगीं। मुझसे रहा नहीं गया, पूछ ही बैठी "अम्मा आप अकेली आई हो ? कोई साथ नहीं आया आपके ?" अम्मा की आँखें लगभग भर आयीं, मुझे लगा मैं यह सवाल पूछकर सच में कोई बहुत बड़ी गलती कर बैठी हूँ। अम्मा थोडा नियंत्रित होते हुए बोलीं "बेटा ड्यूटी पर गया है, और दोनों पोते भी अपनी अपनी कम्पनियों में व्यस्त हैं। बस ज़रा आँख दिखानी थी तो मैं चली आई खुद ही।" मेरा गला भर आया था, और कुछ आगे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुयी।
दो मिनट को अम्मा और मैं दोनों चुप हो गए। अम्मा ने खुद ही चुप्पी को तोड़ा और बताने लगीं, "एक बेटा दिल्ली से बाहर है और जो दिल्ली में रहता है उसको काम से फुर्सत ही कहाँ। माँ के साथ अस्पताल आएगा तो काम और रूपये दोनों का हर्जा होगा। दोनों पोते भी सुबह चले जाते हैं तो फिर रात को ही लौट कर आते हैं। बहु ने चलते वक़्त 10 रूपये दिए थे, समझ नहीं आया इनसे दो केले खरीद लूं कि रिक्शा कर लूं ? बेटे वो तो एक रिक्शावाला पडौस में ही रहता था कि बिना पैसे लिए मुझे यहाँ तक ले आया, तो मैंने दो केले खरीद ही लिए। अब पूरे दिन अस्पताल में ना जाने कितना समय लग जाता, इन दो केलों ने बड़ा सहारा दिया। पर अब वापस जाने के लिए रिक्शे के पैसे फिर नहीं हैं.… "
अम्मा बताये जा रही थी और मैं कुछ दुःख, कुछ गुस्से में सब चुप चाप सुन रही थी। 70 साल की अम्मा कमजोरी से 85 की प्रतीत होती थी। दो दो कमाऊ बेटे, पोते, और बहुओं से भरा पूरा परिवार होने के बावजूद उम्र के इस दौर में क्षीर्ण होती काया का बोझ अम्मा बिलकुल अकेले ढो रहीं थीं। मेरा मन द्रवित था, क्या यही दिन देखने के लिए समाज शादी करने और बच्चे पैदा करने के उल्हाने देता है। कम से कम जिस समाज में हम रहते हैं वहाँ तो शादी बुढ़ापे के सहारे के लिए ही की जाती है, न करो तो 100 दलीलें दे डालतें हैं अकेलेपन से जुड़ी परेशानियों की। ये समाज और इसकी निर्मूल परम्पराएं !
कितनी भ्रांतियाँ हैं हमारे इर्द गिर्द और इनके चक्रव्यूह में घिरे हम। संवेदनशीलता व्यक्ति के स्तर की गुलाम नहीं होती , फिर चाहे वह स्तर सामाजिक हो, आर्थिक हो अथवा वैवाहिक। हाथ बढ़ा कर छूने भर की देर है , खुशियाँ हमारे आस पास ही हैं कहीं। वृद्ध आश्रम में रह रहे वृद्ध जिन्होंने कभी विवाह नहीं किया शायद अस्पताल में मिली इस बूढ़ी अम्मा से ज्यादा खुश हों, उन्हें इस बात की तकलीफ तो न होगी की जिनको पालने पोसने में हाड़-मांस एक कर दिया, ढलती उम्र में वोही बच्चे बेसहारा छोड़ देते हैं।
अम्मा डॉक्टर को अपनी आँख दिखाकर जा रही थी, पहली बार उनको चलते हुए देखा। उनका ढलता बूढ़ा शरीर कमजोरी से झुक गया था। उनके बेजान और शिथिल बढ़ते कदम जीवन की वास्तविकता का अहसास करा रहे थे और घटती संवेदनशीलता का भी.………… ।
अर्चना ~ 14-09-2013
....aankhen dabdaba aayii.n.....dil ko chhoo lene wala chitran....
ReplyDeletegud 1
ReplyDelete....aankhen dabdaba aayii.n.....dil ko chhoo lene wala chitran....
ReplyDeleteAbid Zaidi sahab ki tarah hamari bhi. Ham bhi ab budha gaye hain aur bachche bahar. ham donon bas ek doosre ka sahara hain, baqi Allah Malik hai.
Kisi ko aise din dekhne na pade....better is to be wid GOD then...
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