सर्दियों की शाम जमा देती है,
खून, रूह और सोच को भी...
कोहरे से जंग लड़ती ठंडी आखें
जाने क्या ढूंढने को आमादा हैं,
काँपते होंठ और पथराये हाथ
ठण्ड कुछ ज्यादा है.....!
दूर उस बस्ती में उगा सूरज
काश, यूँही पिघला देता मुझे,
शाम के इस सिरे से.…
भोर के उस सिरे तक,
मैंने खुद को बाँध लिया है,
उन्मादित किरणों के मोहपाश में....!
अर्चना ~ 27-01-2014
काँपते होंठ और पथराये हाथ
ठण्ड कुछ ज्यादा है.....!
दूर उस बस्ती में उगा सूरज
काश, यूँही पिघला देता मुझे,
शाम के इस सिरे से.…
भोर के उस सिरे तक,
मैंने खुद को बाँध लिया है,
उन्मादित किरणों के मोहपाश में....!
अर्चना ~ 27-01-2014