Saturday, June 28, 2014

अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं…।

अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं…।

स्कूल से लौटते वक़्त
मन में बस एक ही द्वंध होता था
कि आज किसकी चिट्ठी आई होगी?

मम्मी, पापा, भाई, जीजी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा अलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा, पिताजी
आज भी मेरे
लोहे के छोटे बक्से में
भरे पड़े हैं सब.……
कुछ नाम  लिखने से रह भी गए होंगे,
बढ़ती उम्र की धुंधलाती यादें। …

नीले अन्तर्देशियों और पीले पोस्टकार्डों
की शाही ज़रूर हलकी पड़ गयी है
पर उनमें लिखा एक-एक शब्द
आज भी आँखों में हीरे सा चमकता है
कुछ सफ़ेद - पीले लिफ़ाफ़े भी हैं
अखबार सी चिट्ठियों से भरे.…

मैं जब भी अपने उस
चिट्ठियों के बक्से को
खोलकर बैठ जाती हूँ, तो
पापा अक्सर टोकते हैं,
"लाली! क्या ढूंढती रहती है,
इस बक्से  में ? ....... "
जवाब होता तो है , पर
शब्द नहीं  .......
ज़िन्दगी कितने आगे बढ़ गयी है
और मन रह गया है ,
वहीँ , पीछे कहीं  … ....

भागता दौड़ता वक़्त,
मौका मिलते ही जा पकड़ता है,
गुज़री यादों को,
सहजता से उमड़े,
मनोभावों को ....
हृदय द्रवित हो उठता है
और व्यथित भी …

एक ज़माना हो गया है
खाकी वर्दी में, साइकिल पे सवार
हैंडल पर थैला लटकाये उस
पसीने से लथ-पथ, थके माँदे
पर, मुस्कराते डाकिये को देखे  …
फेस-बुक के डिब्बे में बंद
स्मार्ट फ़ोन हाथ में लिए
हम आधुनिकता में खो गये हैं
खुद से बहुत दूर हो गये हैं
अब किसी को भी शायद
उस डाकिये की याद नहीं आती
मुझे आती है  …
डॉली, परमिंदर,गुंजन
और अज्जी  .............  की भी

यादें उमड़ आती हैं
गला रुँध जाता है,
आँखें भीग जातीं हैं
पर … ....
अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं  …… !!

अर्चना ~ 28-06-2014



Friday, June 27, 2014

मैं सूरज ..... !!

सिर्फ तुम ही नहीं, 
मैं भी थकता हूँ... 
किरणों की तपती ज्वाला में,
सारा दिन मैं भी जलता हूँ...
किन्तु नियति के चक्रव्यूह में,
मुझको कोई अवकाश नहीं है।

अस्त यहाँ तो उदित वहाँ,
मेरे तन को विश्राम कहाँ....
मेरी व्यथा निहित मुझही में
मेरी कथा दृष्टित सृष्टि में
मैं सूरज दमकूँ कण कण में
उगूँ जहाँ प्रकाश वहीं है....! 


अर्चना ~ 27-06-2014 

Wednesday, June 18, 2014

माँ !

माँ ! तू मुझे रोक लेती है, 
गिरने से, थकने से, खोने से, 
आज भी रोक लिया... ... 
जब भी लगा कि नहीं है तू, 
मुझे गोदी में थामे खड़ी थी तू... ! 


अर्चना ~ 18-06-2014 

मैं सो जाऊँ, फिर उठूँ नहीं …।

मेरा लक्ष्य ना जीत कोई 
पा लूँ खुद को,मनमीत वही
सँकरे जीवन के भ्रमित जाल में
क्या क्या खोजूँ इस कोलाहल में 
बस एक आस, कोई चाह नहीं 
मैं सो जाऊँ, फिर उठूँ नहीं …। 
 

अर्चना ~ 18-06-2014 


इस रात की है, क्या प्रातः कोई ... ?


विचलित मन का 
आहत क्रंदन, 
कम्पित नभ,
तड़ित घन गर्जन।
मैं पिघलूँ,
बरसूँ अँखियों से,
सहमी सी,
निश्छल नदियों से। 
डगमग निश्चय,
ना आस कोई, 
इस रात की है, 
क्या प्रातः कोई ... ? 

अर्चना ~ 18-06-2014