Monday, December 1, 2014
Sunday, November 30, 2014
A Lonely Walk !
When throat gets chocked with flood of tears, you wonder your ability to breath. Your reservoir protects your abnormality from being more abnormal. It is not the struggle to breath or survive but a flawless effort to retain the self high. You have no idea the road leading you where and you have no intention to locate the destination. You have decided to walk and you walk, holding your own hands, clutching your own ribs. Every step you move ahead, you discover a stranger you never knew in you. Promises are fading away in the deep darkness of dark night. You wipe your eyes and you got a reason to smile for a while.
~ Archana
30-11-2014
Monday, November 10, 2014
साधना
पनप रही थी
खुद को साधने की धुन
तुम्हारा साधना होना
निश्चित था
तुमसे ही होके गुज़रते हैं
मेरी माला के
मोतियों के मंत्र
~ अर्चना
खुद को साधने की धुन
तुम्हारा साधना होना
निश्चित था
तुमसे ही होके गुज़रते हैं
मेरी माला के
मोतियों के मंत्र
~ अर्चना
Thursday, November 6, 2014
ज़िंदा हूँ .... !!
यादों से बाबस्ता हूँ
तो ज़िंदा हूँ
बीते पलों का रस्ता हूँ
तो ज़िंदा हूँ
बून्द-बून्द कर दरिया को
भरा है मैंने आँखों में
लम्हा-लम्हा पलकों से
रिस्ता है तो ज़िंदा हूँ ........ !!!
अर्चना
06-11-2014
तो ज़िंदा हूँ
बीते पलों का रस्ता हूँ
तो ज़िंदा हूँ
बून्द-बून्द कर दरिया को
भरा है मैंने आँखों में
लम्हा-लम्हा पलकों से
रिस्ता है तो ज़िंदा हूँ ........ !!!
अर्चना
06-11-2014
Wednesday, October 8, 2014
घुटन
किताबें जला कर
कुछ लोग कोशिश करते हैं
आक्रोश जलाने की
अंदर धधकती घुटन से
बाहर आने की
कि कुछ तो है जो परे है
इन किताबों के...
खून में तरबतर
कातिलाना अल्फाजों के
कि कुछ तो है जो
गला रुंधा देता है
बाहर आने की कोशिश में
धुआं धुआं जला देता है
राख में ढूंढते फिरते हैं
वो वज़ूद अपने किरदार का
किताबों को जलाकर
वो बन जाते हैं सिरा अखबार का..!
कुछ लोग कोशिश करते हैं
आक्रोश जलाने की
अंदर धधकती घुटन से
बाहर आने की
कि कुछ तो है जो परे है
इन किताबों के...
खून में तरबतर
कातिलाना अल्फाजों के
कि कुछ तो है जो
गला रुंधा देता है
बाहर आने की कोशिश में
धुआं धुआं जला देता है
राख में ढूंढते फिरते हैं
वो वज़ूद अपने किरदार का
किताबों को जलाकर
वो बन जाते हैं सिरा अखबार का..!
अर्चना ~ 08-10-2014
"Haider" - Movie Review
I have never written Review for any Movie, not even a line but daring today to write few lines when it's Haider. A classical intense presentation of various shades of Human Emotions at various phases and stages of confusions. How expressions get intense and more intense when clarity plays hide and seek, Haidar could beautifully explain it.
All the characters in the Movie could make you live the character they were playing. For few hours you are away from yourself. Tabbu and Irfan Khan have given such performances before but I have First Time seen Shahid Kapoor at his Best. Shahid could successfully melt you at one moment and left you baffled with frozen tears at another. There are glimpses of light humour too in that confused & heavy atmosphere. Only Vishal Bharadwaj has an ability to make you laugh with it's sarcasm while characters are digging the graves of mankind.
You would love the presentation and performances with fairly good direction but if you are trying to define or confine the movie in some clear meaningful social messages it would be injustice to the basic idea and the plot on which the movie was designed. Vishal Bhardwaj has successfully created the diplomatic atmosphere he wanted to create to avoid any touch of clarity in the movie and in this two and an half hour show, he could clearly focus only on confusions and their connections & impact on our behaviour and expressions.
Being from a psychology background, I would suggest parents must not expose their small children to such Violence and Blood Shed especially when it's presentation is utterly unreasonable to be understood at that young stage.
Haider can be the Story of a family of Kashmir but if you are trying to define Kashmir as a whole via this movie I doubt Vishal Bhardwaj, his intention and his presentation.
A very Good Movie to feel and understand how are we programmed to accept insanity when clouds and fog cover the Roads of Life we cross daily.
I have experienced several shades of intensity and heaviness after watching the Haider some I could convert into poetry too :-
"When Heaviness
gets frozen in eyes
and Heart melts
in screams
You chase yourself
walking on your shadow
speed is fast
but pace is slow
Turn by Turn
Circle by Circle
where are you heading
You don't know
A Mirage or A Maze
Of a crawling soul...!"
gets frozen in eyes
and Heart melts
in screams
You chase yourself
walking on your shadow
speed is fast
but pace is slow
Turn by Turn
Circle by Circle
where are you heading
You don't know
A Mirage or A Maze
Of a crawling soul...!"
Archana
08-10-2014
Sunday, September 14, 2014
मैं और तुम... !
तुम्हें....
जानने में वक़्त ज़ाया नहीं करना
और न पहचानने में...
यूँ ही नदी के बहाव सी मैं
और तुम अखंडित शिला से
बस छू के कदमों को
निकल जाऊंगी तीव्र कदमों से...
अर्चना
14-09-2014
जानने में वक़्त ज़ाया नहीं करना
और न पहचानने में...
यूँ ही नदी के बहाव सी मैं
और तुम अखंडित शिला से
बस छू के कदमों को
निकल जाऊंगी तीव्र कदमों से...
अर्चना
14-09-2014
हिन्दी दिवस
पहला शब्द माँ हिन्दी में ही सीखा था। तो हिन्दी से प्यार स्वाभाविक है किन्तु तीव्र अभिलाषा है कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी समान सम्मान दिया जाये। साथ ही उत्तर भारत में रहने वाले लोगों से सविनय निवेदन है कि अपनी मातृभाषा को हीन दृष्टि से ना देखें बल्कि गर्व का अनुभव करें कि हमारी भाषा हिन्दी अभिव्यक्ति की खान है। मैंने अक्सर देखा है कि दो हिन्दी जानने वाले व्यक्ति अंग्रेजी पर अपनी प्रभुत्ता दिखाने के लिए तथा अाधुनिक बनने की होड़ में, व्यक्तिगत वार्तालाप भी अंग्रेज़ी में करते हैं या करने की कोशिश करते हैं। जबकि अन्य प्रदेशों के लोग व्यक्तिगत वार्तालाप अपनी क्षेत्रीय मातृभाषा में करना पसंद करते हैं। अपनी मातृभाष को अपनाने में शर्म कैसी ? अौर आधुनिकता कोई अंग्रेज़ी की बपौती नहीं है, आधुनिकता तो विचारों की अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता तथा खुलेपन को दर्शाती है। आइये हिन्दी दिवस पर हिन्दी के प्रति सम्मान और रुझान को दर्शायें तथा एक समृद्ध मातृभाषा से सम्बंधित होने पर गर्व का अनुभव करें! ~ हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
~ अर्चना
14-09-2014
~ अर्चना
14-09-2014
Tuesday, September 9, 2014
Sunday, August 31, 2014
In quest of Light on the land of Sleeping Sun !
Connecting Histories giving birth to the inhibitions. You drift apart and get soaked in your own pieces, drop by drop. Life is crawling through the melting dusky self and you are flying through the life. As if the sky has come down and the earth is hanging, up there beyond your reach. As if confusions are laughing at faded clarity and silence is dancing on words. You suddenly start swimming in the air and keep inhaling the water. You are not the same, you are not supposed to be the same. You are sitting behind the Church, counting the stars and drinking the moon, on the stairs like insane.
You remain full of emptiness. Murmuring dry leaves on the green grass are getting eager to get wrapped around your cold feet. You ignore them and they ignore your preference. Everything is floating in its own pace arrogantly with no desire to control or hold. And that soft touch of dew drops burns your presence into absence. Still you exist to witness yourself merging into fumes of liberty. You see your own ashes encircling your existence and you smile at them for they are getting lost in the utter darkness while searching light on the land of sleeping Sun.
Archana Sharma
31-08-2014
You remain full of emptiness. Murmuring dry leaves on the green grass are getting eager to get wrapped around your cold feet. You ignore them and they ignore your preference. Everything is floating in its own pace arrogantly with no desire to control or hold. And that soft touch of dew drops burns your presence into absence. Still you exist to witness yourself merging into fumes of liberty. You see your own ashes encircling your existence and you smile at them for they are getting lost in the utter darkness while searching light on the land of sleeping Sun.
Archana Sharma
31-08-2014
Saturday, August 9, 2014
परमिंदर का जन्मदिन .... !
आज 9 अगस्त है, परमिंदर का जन्मदिन। मैंने उसे सुबह से अभी तक शुभकामनाएं नहीं दी हैं। सोच रही थी उसको कुछ ऐसा तोहफा दूँ की वो चौंक जाये। काम की व्यस्तताओं ने कुछ ऐसा घेरा की कुछ नया नहीं कर पायी और सारा दिन यूँ ही निकल गया। कितने बड़े हो गये हैं अब हम, पहले एक दूसरे के लिये सारे काम छोड़ दिया करते थे और अब काम के लिये एक दूसरे को भूल बैठे हैं। सोच कर एक पल को आत्मग्लानि होती है और दूसरे पल फिर वही व्यस्तता !
अब हमारी अभिव्यक्ति में वो बचपन वाली मासूमियत और समर्पण की भावना तो नहीं रही, जब की हम जन्मदिन के 10 दिन पहले से एक दुसरे के लिए ग्रीटिंग कार्ड्स बनाने बैठ जाते थे, अपनी पूरी तन्मयता और प्यार के साथ, लेकिन वो बचपन के मासूम तार आज भी हमें उतनी ही मजबूती से बांधे हुए हैं जितनी शिद्दत और प्यार से हमने अपने बचपन को सींचा था।
जब भी परमिंदर, मेरा, गोपाल या वजिंदर का जन्मदिन आता है तो मैं एक बार तो झा कॉलोनी वाले अपने घरों में जरूर ही पहुँच जाती हूँ जब हम अपनी छोटी सी दुनियाँ में अपनी तरह से, हमारा जन्मदिन मनाया करते थे। मम्मी नहीं थीं और परमिंदर की मम्मी काफी बीमार रहती थीं। हम दोनों की स्थिति लगभग एक जैसी थी। परमिंदर को तो लौकी की सब्जी काटना, आटा गूंदना भी आंटी के कहने से मैंने ही सिखाया था। दोनों हम उम्र थे पर मैंने हमेशा माँ का और परमिंदर ने बच्ची का रोल अदा किया था।
हम अपने जन्मदिन पर केक नहीं काटते थे, ना ही कॉलोनी के बच्चों को बुलाते थे। सुबह होते ही अपने हाथों से बना कार्ड और जेबख़र्ची से बचे पैसों से लाया गया तोहफा , जोकि बहुत ही जोड़-तोड़ के और दिमाग लगा के लाया जाता था, बर्थडे गर्ल को दिया जाता था। फिर हो जाती थी शुरू शाम की तैयारी। मिठाई तो पापा लोग ले ही आते थे और हम बनाते थे शाम का मीनू। विदित ही है अर्चना शर्मा होतीं थीं हेड कुक और परमिंदर उनको असिस्ट करती थीं :) जो दो चार चीज़ें हमे बनानी आतीं थीं उन्ही को बड़े जोर शोर से बनाया जाता था। घंटो रसोई में पसीने से लथ-पथ मैं और परमिंदर और हमारे अतिथि होते थे हमारे भाई , गोपाल और वजिंदर। कभी कभी पारुल और गुंजन भी आ जाते थे। पापा लोगों को तो हम उन्हीं कमरे सर्व कर देते थे।
हमारे खाने का मीनू, कुछ एक चीज़ों जैसे, छोले-भटूरे, ब्रेड रोल्स, साबूदाने की खिचड़ी, साबूदाने की टिक्की, बेसन के लड्डू, खीर या फिर छोले चावल तक ही सिमित होता था, पर उस वक़्त तो हम खुद को किसी मास्टर शेफ से कम नहीं समझते थे। एक बार की बात है , परमिंदर का जन्मदिन था और हमारी सहेली पारुल को भी शाम को आना था। हमने शाम को साबूदाने की खिचड़ी और रायता बनाने का सोचा था। मैं तो साबूदाने की खिचड़ी बनाती रहती थी, पर परमिंदर ने कभी नहीं बनायीं थी। मैं ना जाने किस काम में व्यस्त थी, मैंने परमिंदर को साबूदाना भिगोने को बोल दिया और परमिंदर ने भिगो भी दिया। साबूदाने को बनाने के लिए कम से कम ३-४ घंटे पहले भिगोया जाता है। शाम को जब मैं साबूदाना बनाने चली तो भगोने से प्लेट हटाते ही मेरे होश उड़ गए। भगोने में साबूदाना कहीं नज़र ही ना आये बस पानी ही पानी, साबूदाना नीचे था। मेरा तो गुस्सा नाक पर , पारुल आने वाली थी। अब क्या किया जाय? परमिंदर डरी सहमी एक कोने में खड़ी थी , उसकी गलती नहीं थी। उसे पता ही नहीं था की साबूदाना कैसे भिगोते हैं , उसे लगा जैसे चावल , दाल और छोलों को भिगोया जाता है वैसे ही साबूदाना भी भीगता होगा, दुगना-तिगना पानी डाल कर। खैर अब कुछ नहीं हो सकता था , पारुल भी अब तक आ चुकी थी। मैंने किसी तरह पानी निथार कर उस साबूदाने को बनाया और हम सबने बड़े प्यार से उस लेही जैसे साबूदाने को खाया :)
इसी तरह परमिंदर के जन्मदिन का एक और किस्सा हम सबको आज भी हँसा देता है। हर बार की तरह हम अपने ही अंदाज़ में परमिंदर का जन्मदिन मना रहे थे। मैं, गोपाल, वजिंदर, परमिंदर, गुंजन और शायद नीरज भैया भी आ गए थे। हम किसी को इनविटेशन नहीं देते थे , बस जो भी आ जाए। मेनू में इस बार छोले भटूरे थे। परमिंदर की पूरी कोशिश थी की उससे इस बार कोई गड-बड़ ना हो। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। मैंने भटूरों का आटा दोपहर को ही गूंद कर रख दिया था, परमिंदर ने छोले सुबह ही भिगो दिए थे। शाम को छोलों को उबलने रख दिया गया और एक सीटी के बाद गैस खतम , लो कर लो बात ! खैर हम सबने मिल कर नया सलेंडर लगाने की कोशिश की पर असफल रहे। हार कर हमने फैसला किया की सारा सामान मेरे घर शिफ्ट किया जाय और खाना वहीं बनाया जाय। गोपाल, वजिंदर, परमिंदर , हम सब मिल कर सारा सामान, मेरे घर ले आये।
मैंने परमिंदर को छोलों वाले कूकर को गैस पर रखने को कहा और हम सब कूलर में बैठ गप्पें मारने लगे। परमिंदर भी कूकर को गैस पर रख कर हमारे पास आ कर बैठ गयी। बातों बातों में समय का पता ही ना चला, अचानक लगभग 45 मिनट्स के बाद मुझे याद आया की कूकर में सीटी तो अभी तक आई नहीं है, मैं झट से उठी रसोई की तरफ भागी और देख कर भोंचक्की रह गयी। कूकर गैस पर रक्खा था पर गैस जल नहीं रही थी। मैंने परमिंदर को आवाज़ लगायी पूछा , "तूने गैस नहीं जलायी थी क्या ?" परमिंदर का ज़वाब था "गुड़िया तूने कूकर को गैस पर रखने को कहा था , गैस जलाने को नहीं। " मैं अपने सर पर हाथ रख कर वहीं बैठ गयी … ऐसी थी मेरी परमिंदर भोली और प्यारी , जो इतनी सी बात नहीं समझ पायी कि कूकर को गैस पर रखने के लिए कहते हैं तो इसका मतलब होता है गैस को जलाकर उस पर कूकर रखना :) कोई उससे पूछे भला , सारा सामन उसके घर से मेरे घर शिफ्ट करने का मतलब ही क्या अगर कच्चे छोलों से भरे कूकर को गैस पर बिना गैस जलाये रख दिया जाय .... :)
खैर पहले परमिंदर ने मुझ से डाँट खायी और फिर हम सब खूब हँसे :) उस रात हमें खाना खाते खाते 12.30 बज गए। अब तो बस यादें रह गयीं हैं। इन बातों को भी 18-20 साल हो गए होंगे। समय तो जैसे पंख लगाये उड़ा ही चला जा रहा है। लेकिन मैं भी जिद्दी हूँ , एक-एक लम्हा आँखों में कैद कर रक्खा है, जब भी जी चाहता है भीगी आँखों से दोबारा जी लेती हूँ। सालों हो गए हैं एक दूसरे का जन्मदिन साथ मनाये , कच्चे छोलों के जायके के साथ भटूरे खाये .... सालों हो गये एक दूसरे के लिये रसोई में पसीने बहाये …… सालों हो गये एक दूसरे को गले लगाये ……
प्रिय परमिंदर
उस पार है
उम्मीदों का आसमान
उजालों की मुस्कान
कल्पनाओं की उड़ान
और इस पार मैं
मेरी चमकतीं आँखें
उल्लसित मन
और ढेरों शुभकामनायें
तुम्हारी प्रगति और विकास के नाम
आशा और विश्वास के नाम
हर्ष और उल्लास के नाम
जन्मदिन की शुभकामनायें !
प्यार के साथ
अर्चना ~ 09-08-2014
अब हमारी अभिव्यक्ति में वो बचपन वाली मासूमियत और समर्पण की भावना तो नहीं रही, जब की हम जन्मदिन के 10 दिन पहले से एक दुसरे के लिए ग्रीटिंग कार्ड्स बनाने बैठ जाते थे, अपनी पूरी तन्मयता और प्यार के साथ, लेकिन वो बचपन के मासूम तार आज भी हमें उतनी ही मजबूती से बांधे हुए हैं जितनी शिद्दत और प्यार से हमने अपने बचपन को सींचा था।
जब भी परमिंदर, मेरा, गोपाल या वजिंदर का जन्मदिन आता है तो मैं एक बार तो झा कॉलोनी वाले अपने घरों में जरूर ही पहुँच जाती हूँ जब हम अपनी छोटी सी दुनियाँ में अपनी तरह से, हमारा जन्मदिन मनाया करते थे। मम्मी नहीं थीं और परमिंदर की मम्मी काफी बीमार रहती थीं। हम दोनों की स्थिति लगभग एक जैसी थी। परमिंदर को तो लौकी की सब्जी काटना, आटा गूंदना भी आंटी के कहने से मैंने ही सिखाया था। दोनों हम उम्र थे पर मैंने हमेशा माँ का और परमिंदर ने बच्ची का रोल अदा किया था।
हम अपने जन्मदिन पर केक नहीं काटते थे, ना ही कॉलोनी के बच्चों को बुलाते थे। सुबह होते ही अपने हाथों से बना कार्ड और जेबख़र्ची से बचे पैसों से लाया गया तोहफा , जोकि बहुत ही जोड़-तोड़ के और दिमाग लगा के लाया जाता था, बर्थडे गर्ल को दिया जाता था। फिर हो जाती थी शुरू शाम की तैयारी। मिठाई तो पापा लोग ले ही आते थे और हम बनाते थे शाम का मीनू। विदित ही है अर्चना शर्मा होतीं थीं हेड कुक और परमिंदर उनको असिस्ट करती थीं :) जो दो चार चीज़ें हमे बनानी आतीं थीं उन्ही को बड़े जोर शोर से बनाया जाता था। घंटो रसोई में पसीने से लथ-पथ मैं और परमिंदर और हमारे अतिथि होते थे हमारे भाई , गोपाल और वजिंदर। कभी कभी पारुल और गुंजन भी आ जाते थे। पापा लोगों को तो हम उन्हीं कमरे सर्व कर देते थे।
हमारे खाने का मीनू, कुछ एक चीज़ों जैसे, छोले-भटूरे, ब्रेड रोल्स, साबूदाने की खिचड़ी, साबूदाने की टिक्की, बेसन के लड्डू, खीर या फिर छोले चावल तक ही सिमित होता था, पर उस वक़्त तो हम खुद को किसी मास्टर शेफ से कम नहीं समझते थे। एक बार की बात है , परमिंदर का जन्मदिन था और हमारी सहेली पारुल को भी शाम को आना था। हमने शाम को साबूदाने की खिचड़ी और रायता बनाने का सोचा था। मैं तो साबूदाने की खिचड़ी बनाती रहती थी, पर परमिंदर ने कभी नहीं बनायीं थी। मैं ना जाने किस काम में व्यस्त थी, मैंने परमिंदर को साबूदाना भिगोने को बोल दिया और परमिंदर ने भिगो भी दिया। साबूदाने को बनाने के लिए कम से कम ३-४ घंटे पहले भिगोया जाता है। शाम को जब मैं साबूदाना बनाने चली तो भगोने से प्लेट हटाते ही मेरे होश उड़ गए। भगोने में साबूदाना कहीं नज़र ही ना आये बस पानी ही पानी, साबूदाना नीचे था। मेरा तो गुस्सा नाक पर , पारुल आने वाली थी। अब क्या किया जाय? परमिंदर डरी सहमी एक कोने में खड़ी थी , उसकी गलती नहीं थी। उसे पता ही नहीं था की साबूदाना कैसे भिगोते हैं , उसे लगा जैसे चावल , दाल और छोलों को भिगोया जाता है वैसे ही साबूदाना भी भीगता होगा, दुगना-तिगना पानी डाल कर। खैर अब कुछ नहीं हो सकता था , पारुल भी अब तक आ चुकी थी। मैंने किसी तरह पानी निथार कर उस साबूदाने को बनाया और हम सबने बड़े प्यार से उस लेही जैसे साबूदाने को खाया :)
इसी तरह परमिंदर के जन्मदिन का एक और किस्सा हम सबको आज भी हँसा देता है। हर बार की तरह हम अपने ही अंदाज़ में परमिंदर का जन्मदिन मना रहे थे। मैं, गोपाल, वजिंदर, परमिंदर, गुंजन और शायद नीरज भैया भी आ गए थे। हम किसी को इनविटेशन नहीं देते थे , बस जो भी आ जाए। मेनू में इस बार छोले भटूरे थे। परमिंदर की पूरी कोशिश थी की उससे इस बार कोई गड-बड़ ना हो। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। मैंने भटूरों का आटा दोपहर को ही गूंद कर रख दिया था, परमिंदर ने छोले सुबह ही भिगो दिए थे। शाम को छोलों को उबलने रख दिया गया और एक सीटी के बाद गैस खतम , लो कर लो बात ! खैर हम सबने मिल कर नया सलेंडर लगाने की कोशिश की पर असफल रहे। हार कर हमने फैसला किया की सारा सामान मेरे घर शिफ्ट किया जाय और खाना वहीं बनाया जाय। गोपाल, वजिंदर, परमिंदर , हम सब मिल कर सारा सामान, मेरे घर ले आये।
मैंने परमिंदर को छोलों वाले कूकर को गैस पर रखने को कहा और हम सब कूलर में बैठ गप्पें मारने लगे। परमिंदर भी कूकर को गैस पर रख कर हमारे पास आ कर बैठ गयी। बातों बातों में समय का पता ही ना चला, अचानक लगभग 45 मिनट्स के बाद मुझे याद आया की कूकर में सीटी तो अभी तक आई नहीं है, मैं झट से उठी रसोई की तरफ भागी और देख कर भोंचक्की रह गयी। कूकर गैस पर रक्खा था पर गैस जल नहीं रही थी। मैंने परमिंदर को आवाज़ लगायी पूछा , "तूने गैस नहीं जलायी थी क्या ?" परमिंदर का ज़वाब था "गुड़िया तूने कूकर को गैस पर रखने को कहा था , गैस जलाने को नहीं। " मैं अपने सर पर हाथ रख कर वहीं बैठ गयी … ऐसी थी मेरी परमिंदर भोली और प्यारी , जो इतनी सी बात नहीं समझ पायी कि कूकर को गैस पर रखने के लिए कहते हैं तो इसका मतलब होता है गैस को जलाकर उस पर कूकर रखना :) कोई उससे पूछे भला , सारा सामन उसके घर से मेरे घर शिफ्ट करने का मतलब ही क्या अगर कच्चे छोलों से भरे कूकर को गैस पर बिना गैस जलाये रख दिया जाय .... :)
खैर पहले परमिंदर ने मुझ से डाँट खायी और फिर हम सब खूब हँसे :) उस रात हमें खाना खाते खाते 12.30 बज गए। अब तो बस यादें रह गयीं हैं। इन बातों को भी 18-20 साल हो गए होंगे। समय तो जैसे पंख लगाये उड़ा ही चला जा रहा है। लेकिन मैं भी जिद्दी हूँ , एक-एक लम्हा आँखों में कैद कर रक्खा है, जब भी जी चाहता है भीगी आँखों से दोबारा जी लेती हूँ। सालों हो गए हैं एक दूसरे का जन्मदिन साथ मनाये , कच्चे छोलों के जायके के साथ भटूरे खाये .... सालों हो गये एक दूसरे के लिये रसोई में पसीने बहाये …… सालों हो गये एक दूसरे को गले लगाये ……
प्रिय परमिंदर
उस पार है
उम्मीदों का आसमान
उजालों की मुस्कान
कल्पनाओं की उड़ान
और इस पार मैं
मेरी चमकतीं आँखें
उल्लसित मन
और ढेरों शुभकामनायें
तुम्हारी प्रगति और विकास के नाम
आशा और विश्वास के नाम
हर्ष और उल्लास के नाम
जन्मदिन की शुभकामनायें !
प्यार के साथ
अर्चना ~ 09-08-2014
Sunday, July 6, 2014
किरणों का अवकाश !
कभी कभी रात,
जनवरी से शुरू होती है
तो, ख़त्म होने का
नाम ही नहीं लेती।
किरणें शायद अवकाश पर हैं,
किन्तु
विस्मय की बात यह है कि
सूरज तो रोज़ निकलता है।
तेजहीन, ओजहीन,
चमकविहीन सूरज …
रात के आँचल में
सहमा सा छिपा रहता है
ना उगने कि खबर मिलती है
ना छिपने का पता चलता है
और अब
आँखों को भी अँधेरे की
आदत हो गयी है …
उजाले और रौशनी की बातें
कल्पना में रह गयीं हैं .... !
अर्चना ~ 06-07-2014
जनवरी से शुरू होती है
तो, ख़त्म होने का
नाम ही नहीं लेती।
किरणें शायद अवकाश पर हैं,
किन्तु
विस्मय की बात यह है कि
सूरज तो रोज़ निकलता है।
तेजहीन, ओजहीन,
चमकविहीन सूरज …
रात के आँचल में
सहमा सा छिपा रहता है
ना उगने कि खबर मिलती है
ना छिपने का पता चलता है
और अब
आँखों को भी अँधेरे की
आदत हो गयी है …
उजाले और रौशनी की बातें
कल्पना में रह गयीं हैं .... !
अर्चना ~ 06-07-2014
Saturday, June 28, 2014
अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं…।
अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं…।
स्कूल से लौटते वक़्त
मन में बस एक ही द्वंध होता था
कि आज किसकी चिट्ठी आई होगी?
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
आज भी मेरे
लोहे के छोटे बक्से में
भरे पड़े हैं सब.……
कुछ नाम लिखने से रह भी गए होंगे,
बढ़ती उम्र की धुंधलाती यादें। …
नीले अन्तर्देशियों और पीले पोस्टकार्डों
की शाही ज़रूर हलकी पड़ गयी है
पर उनमें लिखा एक-एक शब्द
आज भी आँखों में हीरे सा चमकता है
कुछ सफ़ेद - पीले लिफ़ाफ़े भी हैं
अखबार सी चिट्ठियों से भरे.…
मैं जब भी अपने उस
चिट्ठियों के बक्से को
खोलकर बैठ जाती हूँ, तो
पापा अक्सर टोकते हैं,
"लाली! क्या ढूंढती रहती है,
इस बक्से में ? ....... "
जवाब होता तो है , पर
शब्द नहीं .......
ज़िन्दगी कितने आगे बढ़ गयी है
और मन रह गया है ,
वहीँ , पीछे कहीं … ....
भागता दौड़ता वक़्त,
मौका मिलते ही जा पकड़ता है,
गुज़री यादों को,
सहजता से उमड़े,
मनोभावों को ....
हृदय द्रवित हो उठता है
और व्यथित भी …
एक ज़माना हो गया है
खाकी वर्दी में, साइकिल पे सवार
हैंडल पर थैला लटकाये उस
पसीने से लथ-पथ, थके माँदे
पर, मुस्कराते डाकिये को देखे …
फेस-बुक के डिब्बे में बंद
स्मार्ट फ़ोन हाथ में लिए
हम आधुनिकता में खो गये हैं
खुद से बहुत दूर हो गये हैं
अब किसी को भी शायद
उस डाकिये की याद नहीं आती
स्कूल से लौटते वक़्त
मन में बस एक ही द्वंध होता था
कि आज किसकी चिट्ठी आई होगी?
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
आज भी मेरे
लोहे के छोटे बक्से में
भरे पड़े हैं सब.……
कुछ नाम लिखने से रह भी गए होंगे,
बढ़ती उम्र की धुंधलाती यादें। …
नीले अन्तर्देशियों और पीले पोस्टकार्डों
की शाही ज़रूर हलकी पड़ गयी है
पर उनमें लिखा एक-एक शब्द
आज भी आँखों में हीरे सा चमकता है
कुछ सफ़ेद - पीले लिफ़ाफ़े भी हैं
अखबार सी चिट्ठियों से भरे.…
मैं जब भी अपने उस
चिट्ठियों के बक्से को
खोलकर बैठ जाती हूँ, तो
पापा अक्सर टोकते हैं,
"लाली! क्या ढूंढती रहती है,
इस बक्से में ? ....... "
जवाब होता तो है , पर
शब्द नहीं .......
ज़िन्दगी कितने आगे बढ़ गयी है
और मन रह गया है ,
वहीँ , पीछे कहीं … ....
भागता दौड़ता वक़्त,
मौका मिलते ही जा पकड़ता है,
गुज़री यादों को,
सहजता से उमड़े,
मनोभावों को ....
हृदय द्रवित हो उठता है
और व्यथित भी …
एक ज़माना हो गया है
खाकी वर्दी में, साइकिल पे सवार
हैंडल पर थैला लटकाये उस
पसीने से लथ-पथ, थके माँदे
पर, मुस्कराते डाकिये को देखे …
फेस-बुक के डिब्बे में बंद
स्मार्ट फ़ोन हाथ में लिए
हम आधुनिकता में खो गये हैं
खुद से बहुत दूर हो गये हैं
अब किसी को भी शायद
उस डाकिये की याद नहीं आती
मुझे आती है …
डाकिये की भी और
डाकिये की भी और
मम्मी, पापा, गोपाल, जीज्जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
परमिंदर, वजिंदर, डॉली, अज्जी
गुंजन, बंटी, शालू, डोलू
प्रभुता, शालिनी, मनीषा आलोक
रूचि, रचना, अलका, गरिमा
छोटू, बेटू, अम्मा जी, पिता जी
और उन सभी की
जिनको मैंने अपने छोटे से लोहे के
चिट्ठियों के बक्से में सहेज रखा है....
यादें उमड़ आती हैं
गला रुँध जाता है,
आँखें भीग जातीं हैं
पर … ....
अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं …… !!
अर्चना ~ 28-06-2014
Friday, June 27, 2014
मैं सूरज ..... !!
सिर्फ तुम ही नहीं,
मैं भी थकता हूँ...
किरणों की तपती ज्वाला में,
सारा दिन मैं भी जलता हूँ...
किन्तु नियति के चक्रव्यूह में,
मुझको कोई अवकाश नहीं है।
अस्त यहाँ तो उदित वहाँ,
मेरे तन को विश्राम कहाँ....
मेरी व्यथा निहित मुझही में
मेरी कथा दृष्टित सृष्टि में
मैं सूरज दमकूँ कण कण में
उगूँ जहाँ प्रकाश वहीं है....!
अर्चना ~ 27-06-2014
मैं भी थकता हूँ...
किरणों की तपती ज्वाला में,
सारा दिन मैं भी जलता हूँ...
किन्तु नियति के चक्रव्यूह में,
मुझको कोई अवकाश नहीं है।
अस्त यहाँ तो उदित वहाँ,
मेरे तन को विश्राम कहाँ....
मेरी व्यथा निहित मुझही में
मेरी कथा दृष्टित सृष्टि में
मैं सूरज दमकूँ कण कण में
उगूँ जहाँ प्रकाश वहीं है....!
अर्चना ~ 27-06-2014
Wednesday, June 18, 2014
माँ !
माँ ! तू मुझे रोक लेती है,
गिरने से, थकने से, खोने से,
आज भी रोक लिया... ...
जब भी लगा कि नहीं है तू,
मुझे गोदी में थामे खड़ी थी तू... !
अर्चना ~ 18-06-2014
मैं सो जाऊँ, फिर उठूँ नहीं …।
मेरा लक्ष्य ना जीत कोई
पा लूँ खुद को,मनमीत वही
सँकरे जीवन के भ्रमित जाल में
क्या क्या खोजूँ इस कोलाहल में
बस एक आस, कोई चाह नहीं
मैं सो जाऊँ, फिर उठूँ नहीं …।
अर्चना ~ 18-06-2014
इस रात की है, क्या प्रातः कोई ... ?
विचलित मन का
आहत क्रंदन,
कम्पित नभ,
तड़ित घन गर्जन।
मैं पिघलूँ,
बरसूँ अँखियों से,
सहमी सी,
निश्छल नदियों से।
डगमग निश्चय,
ना आस कोई,
इस रात की है,
क्या प्रातः कोई ... ?
अर्चना ~ 18-06-2014
Thursday, April 17, 2014
तुम सुलझा दो ... !!
तुम सुलझा दो ...
मैं तो बस उलझाती जाऊँ !
इस छोर से उस छोर की,
कैसे कोई थाह मैं पाऊँ,
तुम पार लगा दो ...
मैं तो बस बहती जाऊँ !
दिवास्वप्न के मोहपाश में,
आशंकाओं से हताश मैं,
तुम समझा दो ...
मैं तो बस कुम्हलाती जाऊँ !
पथरीले रस्तों के आगे,
शायद खुशियों का आँगन हो,
तुम पहुँचा दो ...
मैं तो बस चलती जाऊँ !
मन का पंछी हॉले-हॉले,
टुकुर-टुकुर आँखों से बोले,
तुम पंख लगा दो ...
फिर, मैं तो बस उड़ती जाऊँ !
तुम सुलझा दो ...
मैं तो बस उलझाती जाऊँ !!
अर्चना ~ 17-04-2014
मैं तो बस उलझाती जाऊँ !
इस छोर से उस छोर की,
कैसे कोई थाह मैं पाऊँ,
तुम पार लगा दो ...
मैं तो बस बहती जाऊँ !
दिवास्वप्न के मोहपाश में,
आशंकाओं से हताश मैं,
तुम समझा दो ...
मैं तो बस कुम्हलाती जाऊँ !
पथरीले रस्तों के आगे,
शायद खुशियों का आँगन हो,
तुम पहुँचा दो ...
मैं तो बस चलती जाऊँ !
मन का पंछी हॉले-हॉले,
टुकुर-टुकुर आँखों से बोले,
तुम पंख लगा दो ...
फिर, मैं तो बस उड़ती जाऊँ !
तुम सुलझा दो ...
मैं तो बस उलझाती जाऊँ !!
अर्चना ~ 17-04-2014
मैं हवा..... !!
हवा की तरह आती हूँ
छूती हूँ तुम्हें, पर
नज़र कहाँ आती हूँ
मन की उलझन से उदास
तुम हताश, बेहताश
और.………
मैं नापूँ, सारा आकाश !!
अर्चना ~ 17-04-2014
छूती हूँ तुम्हें, पर
नज़र कहाँ आती हूँ
मन की उलझन से उदास
तुम हताश, बेहताश
और.………
मैं नापूँ, सारा आकाश !!
अर्चना ~ 17-04-2014
Wednesday, February 5, 2014
एक नयी आपबीती.....।
विवेचना की उत्तेजना
झिंझोड़ देती है अस्तित्व
और रूह को भी,
आतंकित मस्तिष्क
का इन्कार,
संवेदनाओं का बहिष्कार
और इसके परे
ठंडा, सहमा, कुम्लाहा
बेजान दिल !!
धड़कने की कोशिश में
उड़ने लगा है ...
क्षितिज से बातें
करने लगा है....
कदम-दर-कदम
ज़िन्दगी की
एक नयी आपबीती.....।
अर्चना ~ 05-02-2014
झिंझोड़ देती है अस्तित्व
और रूह को भी,
आतंकित मस्तिष्क
का इन्कार,
संवेदनाओं का बहिष्कार
और इसके परे
ठंडा, सहमा, कुम्लाहा
बेजान दिल !!
धड़कने की कोशिश में
उड़ने लगा है ...
क्षितिज से बातें
करने लगा है....
कदम-दर-कदम
ज़िन्दगी की
एक नयी आपबीती.....।
अर्चना ~ 05-02-2014
Monday, February 3, 2014
जीवन की अविरल धारा में, मैं तो बस बहना चाहूँ !
मन की दुविधा..
तन की व्यथा..
मैं ना समझूँ ,
मैं ना मानूँ...
जीवन की अविरल धारा में
मैं तो बस बहना चाहूँ .... !!
कुछ सुख , कुछ दुःख
कुछ कम और ज्यादा कुछ
कुछ रस्ते हैं उबड़-खाबड़
कुछ मेरी कमज़ोर नज़र
पल में खो-दूँ उसको पाकर
जिसमें मैं बसना चाहूं ...!!
मैं प्रातः राग
मैं सांध्य गीत
मैं अश्रुधार
मैं सहज प्रीत
मेरा क्रंदन मेरा अभिमान
हास्य में निहित स्वाभिमान ..!!
मैं ना जानूँ कुछ हार-जीत
एकाकीपन मेरा मनमीत
मेरा संशय मेरा सम्बल
मुझमें निहित विद्रोह प्रबल
बन विहग तोड़ सब सीमाएं
उच्छन्द गगन में उड़ना चाहूँ ...!!
जीवन की अविरल धारा में
मैं तो बस बहना चाहूँ .......!!
अर्चना ~ 03-02-2014
Monday, January 27, 2014
सर्दियों की शाम .....
सर्दियों की शाम जमा देती है,
खून, रूह और सोच को भी...
कोहरे से जंग लड़ती ठंडी आखें
जाने क्या ढूंढने को आमादा हैं,
काँपते होंठ और पथराये हाथ
ठण्ड कुछ ज्यादा है.....!
दूर उस बस्ती में उगा सूरज
काश, यूँही पिघला देता मुझे,
शाम के इस सिरे से.…
भोर के उस सिरे तक,
मैंने खुद को बाँध लिया है,
उन्मादित किरणों के मोहपाश में....!
अर्चना ~ 27-01-2014
काँपते होंठ और पथराये हाथ
ठण्ड कुछ ज्यादा है.....!
दूर उस बस्ती में उगा सूरज
काश, यूँही पिघला देता मुझे,
शाम के इस सिरे से.…
भोर के उस सिरे तक,
मैंने खुद को बाँध लिया है,
उन्मादित किरणों के मोहपाश में....!
अर्चना ~ 27-01-2014
मुझे पंख दे दो !
उस पार .......
है सतरंगी आसमान
मेरी कल्पनाओं की पहचान
मैं जाऊँगी उड़ते-उड़ते
पेड़, पहाड़ी, ताल नापते
मुझे पंख दे दो !!
अर्चना ~ 27-01-2014
है सतरंगी आसमान
मेरी कल्पनाओं की पहचान
मैं जाऊँगी उड़ते-उड़ते
पेड़, पहाड़ी, ताल नापते
मुझे पंख दे दो !!
अर्चना ~ 27-01-2014
Saturday, January 4, 2014
सुबह फिर सपने पुराने आये …… !!
सुबह फिर सपने पुराने आये,
मेरी हैरानी को बढ़ाने आये ....
वक़्त जिन्हें पीछे छोड़ आया
मुझे वही चेहरे डराने आये ....
मेरी हैरानी को बढ़ाने आये ....
वक़्त जिन्हें पीछे छोड़ आया
मुझे वही चेहरे डराने आये ....
आँखें खुलीं तो मन उलझा था,
बैचेनी सोचे सच क्या था ....
पलकों के पीछे की दुनियाँ पे
रौशनी का परदा था ……
बैचेनी सोचे सच क्या था ....
पलकों के पीछे की दुनियाँ पे
रौशनी का परदा था ……
बंद आँखों की दुनियाँ भी अजीब होती है
दूर जितनी , उतनी ही करीब होती है ...
रौशनी में झाँकते, अंधेरों के साये
सपने पुराने, ख़याल नए लाये .... !
सुबह फिर सपने पुराने आये …… !
दूर जितनी , उतनी ही करीब होती है ...
रौशनी में झाँकते, अंधेरों के साये
सपने पुराने, ख़याल नए लाये .... !
सुबह फिर सपने पुराने आये …… !
अर्चना ~ 03-01-2014
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